श्रीविष्णुपुराण

भारतीय जीवन-धारा में पुराणों का महत्वपूर्ण स्थान है, पुराण भक्ति ग्रंथों के रूप में बहुत महत्वपूर्ण माने जाते हैं। जो मनुष्य भक्ति और आदर के साथ विष्णु पुराण को पढते और सुनते है,वे दोनों यहां मनोवांछित भोग भोगकर विष्णुलोक में जाते है।


ध्रुवकी तपस्यासे प्रसन्न हुए भगवान्‌का आविर्भाव और उसे ध्रुवपद-दान

श्रीपराशरजी बोले -

हे मैत्रेय ! यह सब सुनकर राजपुत्र ध्रुव उन ऋषियोंको प्रणामकर उस वनसे चल दिया ॥१॥

और हे द्विज ! अपनेको कृतकृत्य सा मानकर वह यमुनातटवर्ती अति पवित्र मधु नमक वनमें आया । आगे चलकर उस वनमें मधु नामक दैत्य रहने लगा था, इसलिये वह इस पृथ्वीतलमें मधुवन नामसे विख्यात हुआ ॥२-३॥

वहीं मधुके पुत्र लवण नामक महाबली राक्षसको मारकर शत्रुघ्नने मधुरा ( मन्थर ) नामके पुरी बसायी ॥४॥

जिस ( मधुवन ) में निरन्तर देवदेव श्रीहरिकी सन्निधि रहती है उसी सर्व्सपापापहारी तीर्थमें ध्रुवने तपस्या की ॥५॥

मरीचि आदि मुनीश्वरोनें उसे जिस प्रकार उपदेश किया था उसने उसी प्रकार अपने हृदयमें विराजमान निखिलदेवेश्वर श्रीविष्णुभगवानका ध्यान करना आरम्भ किया ॥६॥

इस प्रकार हे विप्र ! अनन्य चित्त होकर ध्यान करते रहनेसे उसके हृदयमें सर्वभूतान्तर्यामी भगवान हरि सर्वतोभावसे प्रकट हुए ॥७॥

हे मैत्रेय ! योगी धुवके चित्तमें भगवान विष्णुके स्थित हो जानेपर सर्वभुतोंको धारण करनेवाली पृथिवी उसका भार न सँभल सकी ॥८॥

उसके बायें चरणपर खडे़ होनेसे पृथ्विवीका बायाँ आधा भाग झुक गया और फिर दाँगे चरणपर खडे़ होनेसे दायाँ भाग झुक गया ॥९॥

और जिस समय वह पैरके अँगूठेसे पृथिवीको ( बीचसे ) दबाकर खड़ा हुआ तो पर्वतोंके सहित समस्त भूमण्डल विचलित खड़ा हुआ तो पर्वतोंके सहित समस्त भूमण्डल विचलित हो गया ॥१०॥

हे महामुने ! उस समय नदी, नद और समुद्र आदि सभी अत्यन्त क्षुब्ध हो गये और उनके क्षोभसे देवताओंमें भी बडी़ हलचल मची ॥११॥

है मैत्रेय । तब याम नामक देवताओंने अत्यन्त व्याकुल हो इन्द्रके साथ परामर्श कर उसके ध्यानको भंग करनेका आयोजन किया ॥१२॥

हे महामुने ! इन्द्रके साथ अति आतुर कूष्माण्ड नामक उपदेवताओंने नानारूप धारणकर उसकी समाधि भंग करना आरम्भ किया ॥१३॥

उस समय मायाहीसे रची हुई उनकी माता सुनीति नेत्रोंमे आँसू भरे ऊसके सामने प्रकट हूई और हे पुत्र ! हे पुत्र ! ऐसा कहकर करुणायुक्त वचन बोलने लगी ( उसने कहा ) बेटा ! तू शरीरको घुलानेवाले इस भयंकर तपका आग्रह छोड़ दे । मैने बडी़ बड़ी कामना ओंद्वारा तुझे प्राप्त किया है ॥१४-१५॥

अरे ! मुझ अकेली, अनाथा, दुखियाको सौतके कटु वाक्योंसे छोड़ देना तुझे उचित नहीं है । बेटा ! मुझ आश्रयहीनाका तो एकमात्र तू ही सहारा है ॥१६॥

कहाँ तो पाँच वर्षका तू और कहाँ तेरा यह अति उग्र तप ? अरे ! इस निष्फल क्लेषकारी आग्रहसे अपना मन मोड़ ले ॥१७॥

अभी ती तेरे खेलने कूदनेका समय है, फिर अध्ययनका समय आयेगा, तदनन्तर समस्त भोगोंके भोगनेका और फिर अन्तमें तपस्या करना भी ठिक होगा ॥१८॥

बेटा ! तुझ सुकुमार बालकका जो खेल कूदका समय है उसीमें तू तपस्या करना चाहता है । तू इस प्रकार क्यों अपनें सर्वनाशमें तप्तर हुआ है ? ॥१९॥

तेरा परम धर्म तो मुझको प्रसन्न रखना ही है, अतः तू अपनी आयु और अवस्थाके अनुकूल कर्मोमें ही लगे, मोहका अनुवर्तन न कर और इस तपरूपी अधर्मसे निवृत्त हो ॥२०॥

बेटा ! यदि आज तू इस तपस्याको च छोड़ेगा तो देख तेरे सामने ही मैं अपने प्राण छोड़ दूँगी ॥२१॥

श्रीपराशरजी बोले -

हे मैत्रेय ! भगवान विष्णुमें चित्त स्थिर रहनेके कारण ध्रुवने उसे आँखोमें आँसू भरकर इस प्रकार विलाप करती देखकर भी नहीं देखा ॥२२॥

तब, अरे बेटा ! यहाँसे भाग-भाग ! देख, इस महाभंयकर वनमें ये कैस घोर राक्षस अस्त्र शस्त्र उठाये आ रहे हैं ऐसा कहती हुई वह चली गयी और वहाँ जिनके मुखसे अग्निकी लपटें निकल रहीं थीं ऐसे अनेकीं राक्षसगण अस्त्र शस्त्र सँभाले प्रकट हो गये ॥२३-२४॥

उन राक्षसोंने अपने अति चमकीले शस्त्रोंको घुमाते हुए उस राजपुत्रके सामने बड़ा भयंकर कोलाहल किया ॥२५॥

उस नित्य योगयुक्त बालकको भयभीत करनेके लिये अपने मुखसे अग्निकी लपटें निकालती हुई सैकडों स्यारियाँ घोर नाद करने लगीं ॥२६॥

वे राक्षसगण भी इसको मारो-मारो काटो-काटो, खाओ-खाओ' इस प्रकार चिल्लाने लगे ॥२७॥

फिर सिंह, ऊँट और मकर आदिके से मुखवाले वे राक्षस राजपुत्रको त्राण देनेके लिये नाना प्रकारसे गरजने लगे ॥२८॥

किन्तु उस भगवदासक्तचित्त बालकको वे राक्षस उनके शब्द, स्यारियाँ और अस्त्र शस्त्रादि कुछ भी दिखायीं नहीं दिये ॥२९॥

वह राजपुत्र एकाग्रचित्तसे निरंन्तर अपने आश्रयभूत विष्णुभगवानको ही देखता रहा और उसने किसीकी और किसी भी प्रकार दृष्टिपात नहीं किया ॥३०॥

तब सम्पूर्ण मायाके लीन हो जानेपर उससे हार जानेकी आशंकासे देवताओंको बड़ा भय हुआ ॥३१॥

अतः उसके तपसे सन्तप्त हो वे सब आपसमें मिलकर जगत्‌के आदि-कारण, शरणागतवत्सल, अनादि और अनन्त श्रीहरिकी शरणमें गये ॥३२॥

देवता बोले - हे देवाधिदेव, जगन्नाथ, परमेश्वर, पुरुषोत्तम ! हम सब ध्रुवकी तपस्यासे सन्तम होकर आपकी शरणमें आये हैं ॥३३॥

हे देव ! जिस प्रकर चन्द्रमा अपनी कलाओंसे प्रतिदिन बढ़्ता है उसी प्रकार यह भी तपस्याके कारण रात दिन उन्नत हो रहा है ॥३४॥

हे जनार्दन ! इस उत्तानपादके पुत्रकी तपस्यासे भयभीत होकर हम आपकी शरणमें आये हैं, आप उसे तपसे निवृत्त किजिये ॥३५॥

हम नहीं जानते, वह इन्द्रत्व चाहता है या सूर्यत्व अथवा उसे कुबेर, वरूण या चन्द्रमाके पदकी अभिलाषा है ॥३६॥

अतः हे ईश ! आप हमपर प्रसन्न होइये और इस उत्तानपादके पुत्रको तपसे निवृत्त करके हमारे हृदयका काँटा निकालिये ॥३७॥

श्रीभगवान् बोले -

हे सुरगण ! उसे इन्द्र, सूर्य वरूण अथवा कुबेर आदि किसीके पदकीं अभिलाषा नहीं है, उसके३ए जो कुछ इच्छा है वह मैं सब पूर्ण करुँगा ॥३८॥

हे देवगण ! तुम निश्चिन्त होकर इच्छानुसार अपने अपने स्थानोंको जाओ । मैं तपस्यामें लगे हुए उस बालकको निवृत्त करता हूँ ॥३९॥

श्रीपराशरजी बोले -

देवाधिदेव भगवानके ऐसा कहनेपर इन्द्र आदि समस्त देवगण उन्हें प्रणामकर अपने अपने स्थानोंको गये ॥४०॥

सर्वात्मा भगवान हरिने भी ध्रुवकी तन्मयतासे प्रसन्न है उसके निकट चतुर्भुजस्वरूपसे जाकर इस प्रकार कहा ॥४१॥

श्रीभगवान बोले -

हे उत्तानापादके पुत्र ध्रुव ! तेरा कल्याण हो । मैं तेरी तपस्यासे प्रसन्न होकर तुझे वर देनेके लिये प्रकट हुआ हूँ, हे सुव्रत ! तू वर माँग ॥४२॥

तुने सम्पूर्ण बाह्म विषयोंसे उपरत होकर अपने चित्तको मुझमें ही लगा दिया है । अतः मैं तुझसे अति सन्तुष्ट हूँ । अब तू अपनी इच्छानुसार श्रेष्ठ वर माँग ॥४३॥

श्रीपराशरजी बोले -

देवाधिदेव भगवानके ऐसे वचन सुनकर बालक ध्रुवने आँखें खोलीं और अपनी ध्यानावस्थामें देखें हुए भगवान हरिको साक्षात अपने सम्मुख खडे़ देखा ॥४४॥

श्रीअच्युतको किरीट तथा शड्ख चक्र, गदा शार्ड धनुष्य और खड्ग धारण किये देख उसने पृथिवीपर सिर रखकर प्रणाम किया ॥४५॥

और सहसा रोमात्र्चित तथा परम भयभीत होकर उसने देवदेवकी स्तुति करनेकी इच्छा की ॥४६॥

किन्तु 'इनकी स्तुतिके लिये मैं क्या कहूँ ? क्या कहनेसे इनका स्तवन हो सकता है ?' यह न जाननेके कारण वह चित्तमें व्याकुल हो गया और अन्तमें उसने उन देवदेवकी ही शरण ली ॥४७॥

ध्रुवने कहा - भगवन् ! आप यदि मेरी तपस्यासे सन्तुष्ट हैं तो मैं आपकी स्तुति करना चाहता हूँ, आप मुझे यही वर दीजिये ( जिससे मैं स्तुति कर सकूँ ) ॥४८॥

( हे देव ! जिनकी गति ब्रह्मा आदि वेदज्ञजन भी नहीं जानते; उन्हीं आपका मैं बालक कैसे स्तवन कर सकता हूँ । किन्तु हे परम प्रभो ! आपकी भक्तिसे द्रवीभूत हुआ मेरा चित्त आपके चरणोंकी स्तुति करनेमें प्रवृत्त हो रहा है । अतः आप इस उसके लिये बुद्धि प्रदान किजिये ) ।

श्रीपराशरजी बोले -

हे द्विजवर्य ! तब जगत्पति श्रीगोविन्दने अपने सामने हाथ जोड़े खड़े हुए उस उत्तानपादके पुत्रको अपने ( वेदमय ) शड्खके अन्त ( वेदान्तमय ) भागसे छू दिया ॥४९॥

तब तो एक क्षणमें ही वह राजकुमार प्रसन्न मुखसे अति विनीत हो सर्वभूताधिष्ठान श्रीअच्युतकी स्तुति करने लगा ॥५०॥

ध्रुव बोले - पृथिवी, जल, अग्नि, वायू, आकाश, मन बुद्धी अहंकार और मुल प्रकृति - यें सब जिनके रूप हैं उन भगवानको मैं नमस्कार करता हूँ ॥५१॥

जो अति शुद्ध, सुक्ष्म, सर्वव्यापक और प्रधानसे भी परे हैं, वह पुरुष जिनका रूप है उन गुण भोक्ता परमपुरुषको मैं नमस्कार करता हूँ ॥५२॥

हे परमेश्वर ! पृथिवी आदि समस्त भूत, गन्धादि उनके गुण, बुद्धि आदि अन्तः करण चतुष्टय तथा प्रधान और पुरुष ( जीव ) से भी परे जो सनातन पुरुष हैं, उन आप निखिलब्रह्माण्डनायकके ब्रह्मभुत शुद्धस्वरूप आत्माकी मैं शरण हूँ ॥५३-५४॥

हे सर्वात्मन ! हे योगियोकें चिन्तनीय ! व्यापक और वर्धनशील होनेके कारण आपका जो ब्रह्मा नामक स्वरूप है, उस विकाररहित रूपको मैं नमस्कार करता हूँ ॥५५॥

हे प्रभो ! आप हजारों मस्तकोंवाले, हजारों नेत्रोवाले और हजारों चरणोवाले परमपुरुष हैं, आप सर्वत्र व्याप्त हैं और ( पृथिवी आदि आवरणोकें सहित ) सम्पूर्ण ब्रह्माण्डको व्याप्त कर दस गुण महाप्रमाणसे स्थित हैं ॥५६॥

हे पुरुषोत्तम ! भूत और भविष्यत जो कुछ पदार्थ है वे सब आप ही हैं तथ विराट, खराट सम्राट और अधिपुरुष ( ब्रह्म ) आदि भी सब आपहीसे उप्तन्न हुए हैं ॥५७॥

वे ही आप इस पृथिवीके नीचे ऊपर और इधर उधर सब और बढे़ हुए हैं । यह सम्पूर्ण जगत् आपहीसे उप्तन्न हुआ है तथा आपहीसे भूत और भविष्यत हुए है ॥५८॥

यह सम्पर्ण जगत आपके स्वरूपभूत ब्रह्माण्डके अन्तर्गत है ( फिर आपके अन्तर्गत होनेकी तो बात ही क्या है ) जिससें सभी पुरोडाशोंका हवन होता है वह यज्ञ, पृषदाज्य ( दधि और घृत ) तथा ( ग्राम और वन्य ) दो प्रकारके पशु, आपहीसे उप्तन्न हुए हैं ॥५९॥

आपहीसे ऋक् आम और गायत्री आदि छन्द प्रकट हुए हैं, आपहीसे यजुर्वेदका प्रादुर्भाव हुआ है और आपहीसे अश्व तथा एक ओर दाँतवाले महिष आदि छन्द प्रकट हुए हैं , आपहीसे ऋक् साम और गायत्री आदि छन्द प्रकट हुए हैं, आपहीसे यजुर्वेदका प्रादुर्भाव हुआ है और आपहीसे अश्व तथा एक और दाँतवाले महिषा आदि जीव उप्तन्न हुए हैं ॥६०॥

आपहीसे गौओं बकरियों भेड़ों और मृगोंकी उप्तत्ति हुई है; आपहीके मुखसे ब्राह्मण, बाहुओंसे क्षत्रिय, जंघाओंसे वैश्य और चरनोंसे शुद्र प्रकट हुए हैं तथा आपहीके नेत्रोंसे सूर्य , प्रणासे वायु, मनसे चन्द्रमा, भीतरी छिद्र ( नासारन्ध्र ) से प्राण, मुखसे अग्नि, नाभिसे आकाश, सिरसे स्वर्ग, श्रोत्रसे दिशाएँ और चरणोंसे पृथिवी आदि उप्तन्न हुए हैं; इस प्रकार हे प्रभ ! यह सम्पूर्ण जगत् आपहीसे प्रकट हुआ है ॥६१-६४॥

जिस प्रकार नन्हेंसे बीजमें बड़ा भारी वट वृक्ष रहता है उसी प्रकार प्रलय कालमें यह सम्पूर्ण जगत बीज स्वरूप आपहीमें लीन रहता है ॥६५॥

जिस प्रकर बीजसे अंकुरूपमें प्रकट हुआ वट वृक्ष बढंकर अत्यन्त विस्तारवाला हो जाता है उसी प्रकार सृष्टिकालमें यह जमत् आपहीसे प्रकट होकर फैल जाता है ॥६६॥

हे ईश्वर ! जिस प्रकार केलेका पौधा छिलके और पत्तोसें अलग दिखायी नहीं देता उसी प्रकार जगतके आप पृथक नही हैं, वह आपहीमें स्थित देखा जाता है ॥६७॥

सबके आधारभूत आपके ह्लादिनी ( निरन्तर आह्लदित करनेवाली ) और सन्धिनी ( विच्छेदरहित ) संवित ( विद्याशक्त ) अभिन्नरूपसे रहती हैं । आपमें ( विषयजन्य ) आह्लाद या ताप देनेवाली ( सात्त्विकी या तामसी ) अथवा उभयमिश्रा ( राजसी ) कोई भी संवित नहीं हैं, क्योकि आप निर्गुण हैं ॥६८॥

आप ( कार्यदृष्टिसे ) पृथक रूप और ( कारणदृष्टिसे ) एकरूप हैं । आप ही भूतसूक्ष्म है और आप ही नाना जीवरूप हैं । हे भूतान्तरात्मन् ! ऐसे आपको मैं नमस्कार करता हूँ ॥६९॥

( योगियोंके द्वारा ) अन्तःकरणमें आप ही महत्तत्त्व, प्रधान, पुरुष विराट, सम्राट और स्वराट् आदि रूपोंसे भावना किये जाते हैं, और ( क्षयशील ) पुरुषोंमें आप नित्य अक्षय हैं ॥७०॥

आकाशादि सर्वभूतोंमें सार अर्थात उनके गुणरूप आप ही हैं; समस्त रूपोंको धारण करनेवाले होनेसे सब कुछ आप ही है; सब कुछ आपहीसे हुआ है; अतएव सबके द्वारा आप ही हो रहे है इसलिये आप सर्वात्माको नमस्कार है ॥७१॥

हे सर्वेश्वर ! आप सर्वात्मक हैं; क्योंकि सम्पूर्ण भूतोंमें व्याप्त है; अतः मैं आपसे क्या कहूँ ? आप स्वयं ही सब हृदयस्थित बातोंकी आप्से क्या कहूँ ? आप स्वय ही सब हृदयस्थित बातोंको जानते हैं ॥७२॥

हे सर्वात्मन ! हे सर्वभूतेश्वर ! हे सब भूतोंके आदि स्थान ! आप सर्वभूतरूपसे सभी प्राणियोंके मनोरथोंको जानते हैं ॥७३॥

हे नाथ ! मेरा जो कुछ्फ़ मनोरथ था वह तो आपने सफल कर दिया और हे जगत्पते ! मेरी तपस्या भी सफल हो गयी, क्योंकी मुझे आपका साक्षात दर्शन प्राप्त हुआ ॥७४॥

श्रीभगवान बोले -

ध्रुव ! तुमको मेरा साक्षात दर्शन प्राप्त हुआ, इससे अवश्य ही तेरी तपस्या तो सफल हो गयी: परन्तु हे राजकुमार ! मेरा दर्शन भी तो कभी निष्फल नहीं होता ॥७५॥

इसलिये तुझको जिस वरकी इच्छा हो वह माँग ले । मेरा दर्शन हो जानेपर पुरुषको सभी कुछ प्राप्त हो सकता है ॥७६॥

ध्रुव बोले- हे भूतभव्येश्वर भगवन् ! आप सभीके अन्तः करणोंमें विराजमान हैं । हे ब्रह्मन ! मेरे मनकी जो कुछ अभिलाषा है वह क्या आपसे छिपी हुई है ? ॥७७॥

तो भी, हे देवश्वर ! मैं दुर्विनीत जिस अति दुर्लभ वस्तुकी हृदयसे इच्छा करता हूँ उसे आपकी आज्ञानुसार आपके प्रति निवेदन करूँगा ॥७८॥

हे समस्त संसारको रचनेवाले परमेश्वर ! आपके प्रसन्न होनेपर ( संसारमें ) क्या दुर्लभ है ? इन्द्र भी आपके कृपाकटाक्षके फलरूपसे ही त्रिलोकीको भोगता है ॥७९॥

प्रभो ! मेरी सौतेली माताने गर्वसे अति बुढ- बुढकर मुझसे यह कहा था कि ' जो मेरे उदरसे उप्तन्न नहीं है उसके योग्य यह रजासह नहीं है' ॥८०॥

अतः हे प्रभो ! आपके प्रसादसे मैं उस सर्वोत्तम एवं अव्यय स्थानको प्राप्त करना चाहता हूँ जो सम्पूर्ण विश्वका आधारभूत हो ॥८१॥

श्रीभगवान बोले -

अरे बालक ! तूने अपने पूर्वजन्ममें भी मुझे सन्तुष्ट किया था, इसलिये तू जिस स्थानकी इच्छा करता है उसे अवश्य प्राप्त करेगा ॥८२॥

पूर्व जन्ममें तू एक ब्राह्मण था और मुझमें निरन्तर एकाग्रचित रहनेवाला, माता पिताका सेवक तथा स्वधर्मका पालन करनेवाला था ॥८३॥

कालनतरमें एक राजपुत्र तेरा मित्र हो गया । वह अपनी युवावस्थामें सम्पूर्ण भोगोंसे सम्पन्न और अति दर्शनीय रूपलावण्ययुक्त भोगोंसे सम्पन्न और अति दर्शनीय रूपलावण्ययुक्त था ॥८४॥

उसके संगमें उसके दुर्लभ वैभवको देखकर तेरी ऐसी इच्छा हुई कि 'मैं भी राजपुत्र होऊँ ॥८५॥

अतः हे ध्रुव ! तुझको अपनी मनोवात्र्छित राजपुत्रता प्राप्त हूई और जिन स्वायम्भुवमनुके कुलमें और किसीको स्थान मिलना अति दुर्लभ है, उन्हीकि घरमें तुने उत्त्तानपादके यहाँ जन्म लिया ॥८६-८७॥

अरे बालक ! ( औरोंके लिये यह स्थान कितना ही दुर्लभ हो परन्तु ) जिसने मुझे सन्तुष्ट किया है उसके लिये तो यह अत्यन्त तुच्छ है । मेरी आराधना करनेसे तो मोक्षपद भी तत्काल प्राप्त हो सकता है, फिर जिसक चित्त निरन्तर मुझमें ही लगा हुआ है उसके लिये स्वर्गादि लोकोंका तो कहना ही क्या है ? ॥८८-८९॥

हे ध्रुव ! मेरी कॄपासे तू निस्सन्देह उस स्थानमें, जो त्रिलोकीमें सबसे उत्कृष्ट है, सम्पूर्ण ग्रह और तारामण्डलका आश्रय बनेगा ॥९०॥

हे ध्रुव ! मैं तुझे वह ध्रुव ( निश्चल ) स्थान देता हूँ जो सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध , बृहस्पति और सम्पूर्ण विमानचारी देवगणोंसे ऊपर है ॥९१-९२॥

देवता आमेंसे कोई तो केवल चार युगतक और कोई एक मन्वन्तरक ही रहते है; किन्तु तुझे मैं एक कल्पतककी स्थिति देता हूँ ॥९३॥

तेरी माता सुनीति भी अति स्वच्छ तारारूपसे उतने ही समयतक तेरे पास एक विमानपर निवास करेगी ॥९४॥

और जो लोग समाहित चित्तसे सायड्काल और प्रातःकालके समय तेरा गुण कीर्तन करेंगे उनको महान् पुण्य होगा ॥९५॥

श्रीपराशरजी बोले -

हे महामते ! इस प्रकार पूर्वकालमें जगत्पति देवाधिदेव भगवान् जनार्दनसे वर पाकर ध्रुव उस अत्युत्तम स्थानमें स्थित हुए ॥९६॥

हे मुने ! अपने माता पिताकी धर्मपूर्वक सेवा करनेसे तथा द्वादशाक्षर मन्त्रके माहात्म्य और तपके प्रभावसे उनके मान, वैभव एवं प्रभावकी वृद्धि देखकर देव और असुरोंके आचार्य शुक्रदेवने ये श्लोक कहे हैं ॥९७-९८॥

'अहो ! इस ध्रुवके तपका कैसा प्रभाव है ? अहो ! इसकी तपस्याका कैसा अद्भुत फल हैं जो इस ध्रुवको ही आगे रखकर सप्तार्षिगण स्थित हो रहे हैं ॥९९॥

इसकी यह सुनीति नामवाली माती भी अवश्य ही सत्य और हितकर वचन बोलनेवाली है * । संसारमें ऐसा कोण है जो इसकी महिमाका वर्णन कर सके ? जिसने अपनी कोखमें उस ध्रुवको धारण करके त्रिलोकीका आश्रयभूत अति उत्तम स्थान प्राप्त कर लिया, जो भविष्यमें भी स्थिर रहनेवाला है' ॥१००-१०१॥

जो व्यक्ति ध्रुवके इस दिव्यलोक प्राप्तिके प्रसंगक कीर्तन करता है वह सब पापंसे मुक्त होकर स्वर्गलोकमें पूजित होता है ॥१०२॥

वह स्वर्गमें रहे अथवा पृथ्विवीमें कभी अपने स्थानसे च्युत नहीं होता तथा समस्त मंगलोंसे भरपूर रहकर बहुत कालतक जीवित रहता है ॥१०३॥

* सुनीतिने ध्रुवको पूण्योपर्जन करनेका उपदेश दिया था, जिसके आचरणसे उन्हें उत्तम लोक प्राप्त हुआ । अतएव 'सुनीति' सूनृता कही गयी है ।

इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशें द्वादशोऽध्यायः ॥१२॥