श्रीविष्णुपुराण

भारतीय जीवन-धारा में पुराणों का महत्वपूर्ण स्थान है, पुराण भक्ति ग्रंथों के रूप में बहुत महत्वपूर्ण माने जाते हैं। जो मनुष्य भक्ति और आदर के साथ विष्णु पुराण को पढते और सुनते है,वे दोनों यहां मनोवांछित भोग भोगकर विष्णुलोक में जाते है।


कश्यपजीकी अन्य स्त्रियोंके वंश एवं मरुद्गणकी उप्तत्तिका वर्णन

श्रीपराहरजी बोले -

संह्लादके पुत्र आयुष्मान शिबि और बाल्कल थे तथा प्रह्लादके पुत्र विरोचन थे और विरोचनसे बलिका जन्म हुआ ॥१॥

हे महामुने ! बलिके सौ पुत्र थे जिनमें बाणासुर सबसे बड़ा था । हिरण्याक्षके पुत्र उत्कुर, शकुनि, भूतसन्तापन, महानाभ, महाबाहु तथा कालनाथ आदि सभी महाबलवान् थे ॥२-३॥

( कश्यपजीकी एक दुसरी स्त्री ) दनुके पुत्र द्विमूर्धा शम्बर, अयोमुख, शंकुशिरा, कपिल, शंकर, एकचक्र महाबाहु, तारक, महाबल, स्वर्भानु, वृषपर्वा, महाबली पुलोम और परमपराक्रमी विप्रचित थे । ये सब दनुके पुत्र विख्यात हैं ॥४-६॥

स्वर्भानुकी कन्या प्रभा थी तथा शर्मिष्ठा, उपदानी और हयशिरा- ये वृषपर्वाकी परम सुन्दरी कन्याएँ विख्यात हैं ॥७॥

वैश्वानरकी पुलोमा और कालका दो पुत्रियाँ थीं । हे महाभाग ! वे दोनों कन्याएँ मरीचिनन्दन कश्यपजीकी भार्या हुईं ॥८॥

उनके पुत्र साठ हजार दानव श्रेष्ठ हुए । मरिचिनन्दन कश्यपजीके वे सभी पुत्र पौलोम और कालकेय कहलाये ॥९॥

इनके सिवा विप्रचित्तिके सिंहिकाके गर्भसे और भी बहुत से महाबलवान् , भयंकर और अतिक्रूर पुत्र उत्पन्न हुए ॥१०॥

वे व्यंश, शल्य, बलवान् नभ, महाबली वातापी, नमुचि, इल्वल, खसृम , अन्धक, नरक, कालनाभ , महावीर, स्वर्भानु और महादैत्य वक्त्र योधी थे ॥११-१२॥

ये सब दानवश्रेष्ठ दनुके वंशको बढ़ानेवाले थे । इनके और भी सैकड़ो हजारों पुत्र-पौत्रादि हुए ॥१३॥

महान् तपस्याद्वारा आत्मज्ञानसम्पन्न दैत्यवर प्रह्लादजीके कुलमें निवातकवच नामक दैत्य उप्तन्न हुए ॥१४॥

कश्यपजीकी स्त्री ताम्राकी शुकी, श्येनी , भासी सुग्रीवी, शुचि और गृद्‌ध्रिका - ये छः अति प्रभावशालिनी कन्याएँ कही जाती हैं ॥१५॥

शुकीसे शुक उलूक एवं उलूकोंके प्रतिपक्षी काक आदि उप्तन्न हुए तथा श्येनीसे श्येन ( बाज ) , भासीसे भास और गृदिध्रकासे गृद्धोंका जन्म हुआ ॥१६॥

शुचिसे जलके पक्षिगण और सुग्रीवीसे अश्व, उष्ट्र और गर्दभोंकी उप्तत्ति हुई । इस प्रकार यह ताम्राका वंश कहा जाता है ॥१७॥

विनताके गरुड और अरुण ये दो पुत्र विख्यात हैं । इनमें पक्षियोंमें श्रेष्ठ सुपर्ण ( गरुडजी ) अति भयंकर और सर्पोंको खानेवाले हैं ॥१८॥

हे ब्रह्मन ! सुरसारे सहस्त्रों सर्प उत्पन्न हुए जो बड़े प्रभावशाली, आकाशमें विचरनेवाले, अनेक शिरोंवाले और बड़े विशालकाय थे ॥१९॥

और कद्रुके पुत्र भी महाबली और अमित तेजस्वी अनेक सिरवाले सहस्त्रों सर्प ही हुए जो गरुडजीके वशवर्ती थे ॥२०॥

उनमेंसे शेष, वासुकि, तक्षक शंखश्वेत, महापद्म, कम्बल, अश्वतर, एलापुत्र, नाग, कर्कोटक, धनत्रय तथा और भी अनुकों उग्र विषधर एवं काटनेवाले सर्प प्रधान हैं ॥२१-२२॥

क्रोधवशाके पुत्र क्रोधवशगण हैं । वे सभी बड़ी-बडी़ दाढोंवाले, भयंकर और कच्चा मांस खानेवाले जलचर, स्थलचर एवं पक्षिगण हैं ॥२३॥

महाबली पिशाचोंको भी क्रोधाने ही जन्म दिया है । सुरभिसे गौ और महिष आदिकी उप्तत्ति हुई तथ इरासे वृक्ष, लता, बेल, और सब प्रकरके तृण उप्तन्न हुए हैं ॥२४॥

खसाने यक्ष और राक्षसोंको , मुनिने अप्सराओंको तथा अरिष्टाने अति समर्थ गन्धर्वोंको जन्म दिया ॥२५॥

ये सब स्थावर, जंगम कश्यपजीकी सन्तान हुए । इनके और भी सैकड़ो-हजारों पुत्र-पौत्रादि हुए ॥२६॥

हे ब्रह्मन ! यह स्वारोचिष - मन्वन्तरकी सृष्टिका वर्णन कहा जाता हैं ॥२७॥

वैवस्वत-मन्वन्तरके आरम्भमें महान् वारुण यज्ञ हुआ, उसमें ब्रह्माजी होता थे, अब मैं उनकी प्रजाका वर्णन करता हूँ ॥२८॥

हे साधुश्रेष्ठ ! पूर्व मन्वन्तरमें ! पूर्व मन्वन्तरमें जो सप्तार्षिगण स्वयं ब्रह्माजीके मानसपुत्ररूपसे उप्तन्न हुए थे , उन्हीकों ब्रह्माजीने इस कल्पमें गन्धर्व, नाग देव और दान्वादिके पितृरूपसे निश्चित किया ॥२९॥

पुत्रोंके नष्ट हो जानेपर दितिने कश्यपजीको प्रसन्न किया । उसकी सम्यक् आराधनासे सन्तुष्ट हो तपस्वियोंमें श्रेष्ठ कश्यपजीने उसे वर देकर प्रसन्न किया । उस समय उसने इन्द्रके वध करनेमें समर्थ एक अति तेजस्वी पुत्रका वर माँगा ॥३०-३१॥

मुनिश्रेष्ठ कश्यपजीने अपनी भार्या दितिको वह वर दिया और उस अति उग्र वरको देते हुए वे उससें बोले - ॥३२॥

"यदि तुम भगवान्‌के ध्यानमें तत्पर रहकर अपना गर्भ शौच * और संयमपूर्वक सौ वर्षतक धारण कर सकोगी तो तुम्हारा पुत्र इन्द्रको मारनेवाला होगा " ॥३३॥

ऐसा कहकर मुनि कश्यपजीने उस देवीसे संगमन किया और उसने बडे़ शौचपूर्वक रहते हुए वह गर्भ धारण किया ॥३४॥

उस गर्भको अपने वधका कारण जान देवराज इन्द्र भी विनयपूर्वक उसकी सेवा करनेके लिये आ गये ॥३५॥

उसके शौचादिमें कभी कोई अन्तर पड़े - यहीं देखनेकी इच्छासे इन्द्र वहाँ हर समय उपस्थित रहते थे । अन्तमें सौ वर्षमें कुछ हे कमी रहनेपर उन्होंने एक अन्तर देख ही लिया ॥३६॥

एक दिन दिति बिना चरणशुद्धि किये हो अपनी शय्यापर लेट गयी । उस समय निद्राने उसे घेर लिया । तब इन्द्र हाथमें वज्र लेकर उसकी कुक्षिमें घुस गये और उस महागर्भके सात टुकडे़ कर डाले । इस प्रकार वज्रसे पीडित होनेसे वह गर्भ जोर-जोरसे रोने लगा ॥३७-३८॥

इन्द्रने उससे पुनःपुनः कहा कि 'मत रो' । किन्तु जब वह गर्भ सात भागोंमें विभक्त हो गया, ( और फिर भी न मरा ) तो इन्द्रने अत्यन्त कुपित हो अपने शत्रु विनाशक वज्रसे एक-एकके सात-सात टुकडे़ और कर दिये । वे ही अति वेगवान् मरुत नामक देवता हुए ॥३९-४०॥

भगवान् इन्द्रने जो उससे नामक देवता हुए रोदीः' ( मत रो ) इसीलिये वे मरूत कहलाये । ये उनचास मरुद्नण इन्द्रके सहायक देवता हुए ॥४१॥

इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे एकविंशोऽध्यायः ॥२१॥

* शौच आदि नियम मत्स्यपुराणमें इस प्रकार बतलाये गये है - 'सन्धायां नैव भोक्तव्यं गर्भिण्या वरवर्णिनि । न स्थातव्यं न गन्तव्यं वृक्षमूलेषु सर्वदा ॥ वर्जयेत् कलहँ लोके गात्रभंग तथैव च नोन्मुक्तकेशी तिष्ठेच्च नाशुचिः स्यात् कदाचन ॥ हे सुन्दरि ! गर्भिणी स्त्रीको चाहिये कि सायंकालमें भोजन न करे, वृक्षोंके नीचे न जाय और न वहाँ ठहरे ही तथा लोगोंके साथ कलह और अँगाई लेना छोड़ दे, कभी केश खुला न रखे और न अपवित्र ही रहे । तथा भागवतमें भी कहा है - 'न हिंस्यात्सर्वभूतानि न शपेन्नानृतं वदेत्' इत्यादि । अर्थात् प्राणियोंकी हिंसा न करे किसीको बुरा-भला न कहे और कभी झूठ न बोले ।