श्रीविष्णुपुराण

भारतीय जीवन-धारा में पुराणों का महत्वपूर्ण स्थान है, पुराण भक्ति ग्रंथों के रूप में बहुत महत्वपूर्ण माने जाते हैं। जो मनुष्य भक्ति और आदर के साथ विष्णु पुराण को पढते और सुनते है,वे दोनों यहां मनोवांछित भोग भोगकर विष्णुलोक में जाते है।


मान्धाताकी सन्तति, त्रिशुंकका स्वर्गारोहण तथा सगरकी उप्तत्ति और विजय

अब हम मान्धाताके पुत्रोंकी सन्तानका वर्णन करते हैं ॥१॥

मान्धाताके पुत्र अम्बरीषके युवनाश्च नामक पुत्र हुआ ॥२॥

उससे हारीत हुआ जिससे अंगिरा- गोत्रीय हरीतगण हुए ॥३॥

पूर्वकालमें रसातलमें मौनेय नामक छः करोड़ गन्धर्व रहते थे । उन्होंने समस्त नागकुलोंके प्रधान - प्रधान रत्न और अधिकार छीन लिये थे ॥४॥

गन्धर्वोके पराक्रमसे अपमानित उस नागेश्वरोंद्वारा स्तुति किये जानेपर उसके श्रवण करनेसे जिनकी विकसित कमलसदृश आँखे खुल गयीं है निद्राके अन्तमें जगे हुए उन जलशायी भगवान् सर्वदेवेश्वरको प्रणाम कर उनसे नागगणने कहा, भगवान ! इन गन्धर्वोंसे उप्तन्न हुआ हमारा भय किस प्रकार शान्त होगा ? " ॥५॥

तब आदि अन्तरहित भगवान् पुरुषोत्तमने कहा - ' युवनाश्वके पुत्र मान्धाताका जो यह पुरुकुत्स नामक पुत्र है उसमें प्रविष्ट होकर मैम उन सम्पूर्णं दुष्ट गन्धर्वोंका नाश कर दूँगा ॥६॥

यह सुनकर भगवान् जलशायीको प्रणाम कर समस्त नागाधिपतिगण नागलोकमें लौट आये और पुरुकुत्सको लानेके लिये ( अपने बहिन एवम् पुरुकुत्सकी भार्या ) नर्मदाको प्रेरित किया ॥७॥

तदनन्तर नर्मदा पुरुकुत्सको रसातलमें ले आयी ॥८॥

रसातलमें पहूँचनेपर पुरुकुत्सने भगवान्‌के तेजसे अपने शरीरका बल जानेसे सम्पूर्ण गन्धवोंको मार डाला और फिर अपने नगरमें लौट आया ॥९-१०॥

उस समय समस्त नागराजोंने नर्मदाको यह वर दिया कि जो कोई तेरा स्मरण करते हुए तेरा नाम लेगा उसको सर्प - विषसे कोई भय न होगा ॥११॥

इस विषयमें यह श्लोक भी है ॥१२॥

' नर्मदाको प्राप्तह काल नमस्कार है और रात्रिकालमें भी नर्मदाको नमस्कार है । हे नर्मदे ! तुमको बारम्बार नमस्कार है, तुम मेरी विष और सर्पसे रक्षा करो' ॥१३॥

इसका उच्चरण करते हुए दिन अथवा रात्रिमें किसी समय भी अन्धकारमें जानेसे सर्प नहीं काटता तथा इसका स्मरण करके भोजन करनेवालेका खाया हुआ विष भी घातक नहीं होता ॥१४॥

पुरुकुत्सको नागपतियोंने यह वर दिया कि तुम्हारी सन्तानका कभी अन्त न होगा ॥१५॥

पुरुकुत्सने नर्मदासे त्रसद्दस्यु नामक पुत्र उत्पन्न किया ॥१६॥

त्रसद्दस्युसे अनरण्य हुआ, जिसे दिग्विजयके समय रावणने मारा था ॥१७॥

अनरण्यके पृषदश्व, पृषदश्वके हर्यश्व, हर्यश्वके हस्त, हस्तके सुमना, सुमनाके त्रिधन्वा, त्रिधन्वाके त्रय्यारुणि और त्रय्यारुणिके सत्यव्रत नामक पुत्र हुआ, जो पीछे त्रिशंकु कहलाया ॥१८-२१॥

वह त्रिशकुं चाण्डाल हो गया था ॥२२॥

एक बार बारह वर्षतक अनावृष्ट रही । उस समय विश्वमित्र मुनिके स्त्री और बाल बच्चोके पोषणार्थ तथा अपनी चाण्डालताको छुड़ानेके लिये वह गंगाजीके तटपर एक वटके वृक्षपर प्रतिदिन मृगका मांस बाँध आता था ॥२३॥

इससे प्रसन्न होकर विश्वामित्रजीने उसे सदेह स्वर्ग भेज दिया ॥२४॥

त्रिशंकुसे हरिश्चन्द्र, हरिश्चन्द्रसे रोहिताश्व, रोहिताश्वसे हरित, हरितसे चत्र्चु, चत्र्चुसे विजय और वसुदेव, विजयसे रुरुक और रुरुकसे वृकका जन्म हुआ ॥२५॥

वृकके बाहु नामक पुत्र हुआ जो हैहय और तालजंघ आदि क्षत्रियोंसे पराजित होकर अपनी गर्भवती पटरानीके सहित वनमें चला गया था ॥२६॥

पटरानीकी सौतने उसका गर्भ रोकनेकी इच्छासे उसे विष खिला दिया ॥२७॥

उसके प्रभावसे उसका गर्भ सात वर्षतक गर्भाशय ही में रहा ॥२८॥

अन्तमें, बाहु वृद्धवस्थाके कारण और्व मुनिके आश्रमके समीप मर गया ॥२९॥

तब उसकी पटरानीने चिता बनाकर उसपर पतिका शव स्थापित कर उसके साथ सती होनेका निश्चय किया ॥३०॥

उसी समय भूत, भविष्यत और वर्तमान तीनों कालके जाननेवाले भगवान् और्वने अपने आश्रमसे निकलकर उससे कहा - ॥३१॥

'अयि साध्वि ! इस व्यर्थ दुराग्रहकी छोड़ ! तेरे उदरमें सम्पूर्ण भूमण्डलका स्वामी, अत्यन्त बल-पराक्रमशील, अनेक यज्ञोंका अनुष्ठान करनेवाला और शत्रुओंका नाश करनेवाला चक्रवती राजा हैं ॥३२॥

तू ऐसे दुस्साहसका उद्योग न कर । ' ऐसा कहे जानेपर वह अनुमरण ( सति होने ) के आग्रहसे विरत हो गयी ॥३३॥

और भगवान् और्व उसे अपने आश्रमपर ले आये ॥३४॥

वहाँ कुछ ही देनोंमे, उसके उस गर ( विष ) के साथ ही एक अति तेजस्वी बालकने जन्म लिया ॥३५॥

भगवान् और्वने उसके जातकर्म आदि संस्कार कर उसका नाम ' सगर' रखा तथा उसका उपनयनसंस्कार होनेपर और्वने ही उसे वेद, शास्त्र एवं भार्गव नामक आग्नेय शस्त्रोंकी शिक्षा दी ॥३६-३७॥

बुद्धिका विकास होनेपर उस बालकने अपनी मातांसे कहा - ॥३८॥

" माँ ! यह तो बता, इस तपोवनमें हम क्यों रहते हैं और हमारे पिता कहाँ हैं ? ' इसी प्रकारके और भी प्रश्न पूछनेपर माताने उससे सम्पूर्ण वृतान्त कह दिया ॥३९॥

तब तो पिताके राज्यापहरणको सहन न कर सकनेके कारण उसने हैहय और तालजंघ आदि क्षत्रियोंको मार डालनेकी प्रतिज्ञा की और प्रायः सभी हैहय एवं तालजंघवंशीय राजाओंको नष्ट कर दिया ॥४०-४१॥

उनके पश्चात शक, यवन, काम्बोज, पारद और पह्लवगण भी हताहत होकर सगरके कुलगुरु वसिष्ठजीकी शरणमें गये ॥४२॥

वसिष्ठजीने उन्हें जीवन्मृत ( जीते हुए ही मरेके समान ) करके सगरसे कहा - " बेटा इन जीते - जी मेरे हुओंका पीछा करनेसे क्या लाभ है ? ॥४४॥

देख तेरी प्रतिज्ञाको पूर्ण करनेके लिये मैंने ही इन्हें स्वधर्म और द्विजातियोंके संसर्गसे वत्र्चित कर दिया है" ॥४५॥

राजाने ' जो आज्ञा' कहकर गुरुजीके कथनका अनुमोदन किया और उनके वेष बदलवा दिये ॥४६॥

उसने यवनोंके सिर मुड़वा दिये, शकोंको अर्द्धमुण्डित कर दिया, पारदोंके लम्बे - लम्बे केश रखवा दिये, पह्ववोंके मूँछ-दाढी रखवा दीं तथा इनको और इनके समान अन्यान्य क्षत्रियोंको भी स्वध्याय और वषट्कारादिसे बहिष्कृत कर दिया ॥४७॥

अपने धर्मको छोड़ देनेके कारण ब्राह्मणोंने भी इनका परित्याग कर दिया; अतः ये म्लेच्छ हो गये ॥४८॥

तदनन्तर महाराज सगर अपनी राजधानीमें आकर अप्रतिहत सैन्यसे युक्त हो इस सम्पूर्ण सप्तद्वीपती पृथ्विवीका शासन करने लगे ॥४९॥

इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थऽशे तृतीयोऽध्यायः ॥३॥