श्रीविष्णुपुराण

भारतीय जीवन-धारा में पुराणों का महत्वपूर्ण स्थान है, पुराण भक्ति ग्रंथों के रूप में बहुत महत्वपूर्ण माने जाते हैं। जो मनुष्य भक्ति और आदर के साथ विष्णु पुराण को पढते और सुनते है,वे दोनों यहां मनोवांछित भोग भोगकर विष्णुलोक में जाते है।


काश्यवंशका वर्णन

श्रीपराशरजी बोले -

आयु नामक जो पुरुरवाका ज्येष्ठ पुत्र था उसने राहुकी कन्यासे विवाह किया ॥१॥

उससे उसके पाँच पुत्र हुए जिनके नाम क्रमशः नहुष, क्षत्रवृद्ध, रभ्म, रजि और अनेना थे ॥२-३॥

क्षत्रवृद्धके सुहोत्र नामक पुत्र हुआ और सुहोत्रके काश्य, काश तथा गृत्समय नामक तीन पुत्र हुए । गृत्समदका पुत्र शौनक चातुर्वर्ण्यका प्रवर्तक हुआ ॥४-६॥

काश्यका पुत्र काशिराज काशेय हुआ । उसके राष्ट्र, राष्ट्रके दीर्घतपा और दीर्घतपाके धन्वन्तरि नामक पुत्र हुआ ॥७-८॥

इस धन्वन्तरिके शरीर और इन्द्रियाँ जरा आदि विकारोंसे रहित थीं - तथा सभी जन्मोंमें यह सम्पूर्णं शास्त्रोंका जाननेवाले था । पूवजन्ममें भगवान् नारायणने उसे यह वर दिया था कि ' काशिराजके वंशमें उप्तन्न होकर तुम सम्पूर्ण आयुर्वेदको आठ भागोंमें विभक्त करोगे और यज्ञ - भागके भोक्ता होगे' ॥९-१०॥

धन्वन्तरिका पुत्र केतुमान् , केतुमानका भीमरथ, भीमरथका दिवोदास तथा दिवोदसका पुत्र प्रतर्दन हुआ ॥११॥

उसने मद्रश्रेण्यवंशका नाश करके समस्त शत्रुओंपर विजय प्राप्त की थी, इसलिये उसका नाम ' शत्रुजित' हुआ ॥१२॥

दिवोदासने अपने इस पुत्र ( प्रतर्दन ) से अत्यन्त प्रेमवश 'वत्स, वत्स' कहा था, इसलिये इसका नाम 'वत्स' हुआ ॥१३॥

अत्यन्त सत्यपरायण होनेके कारण इसका नाम ऋतध्वज' हुआ ॥१४॥

तदनन्तर इसने कुवलय नामक अपूवं अश्व प्राप्त किया । इसलिये यह इस पृथिवीतलपर 'कुवलयाश्च' नामसे विख्यात हुआ ॥१५॥

इस वत्सके अलर्क नामक पुत्र हुआ जिसके विषयमें यह श्‍लोक आजतक गाया जाता है ॥१६॥

' पूर्वकालमें अलर्कके अतिरिक्त और किसीने भी छाछठ सहस्त्र वर्षतक युवावस्थामें रहकर पृथिवीका भोग नहीं किया' ॥१७॥

उस अलर्कके भी सन्नति नामक पुत्र हुआ; सन्नतिके सुनीथ, सुनीथके सुकेतु, सुकेतुके धर्मकेतु, धर्मकेतुके, सत्यकेतु, सत्यकेतुके विभु, विभुके सुविभु, सुविभुके सुकुमार,सुकुमारके धृष्टकेतु, धृष्टकेतुके वीतिहोत्र, वीतिहोत्रके भार्ग और भार्गके भार्गभूमि नामक पुत्र हुआ, भार्गभूमिसे चातुर्वर्ण्यका प्रचार हुआ । इस प्रकार काश्यवंशके राजाओंका वर्णन हो चुका अब रजिकी सन्तानका विवरण सुनो ॥१८-२१॥

इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेऽशे अष्टमोऽध्यायः ॥८॥