कोणोऽन्तको रौद्रयमोऽथ बभ्रुः कृष्णः शनिः पिंगलमन्दसौरिः।
नित्यं स्मृतो योजना रहते य पीड़ा तस्मै नमः श्रीरविनन्दनाय।।
सुराऽसुरा किंपुरुषोरगेन्द्रा गन्धर्व-विद्याधर-पन्नगाश्च।
पीड्यन्ति सर्वे विषमस्थितेन तस्मै नमः श्रीरविनन्दनाय।।
नरा नरेंद्राः पशवो मृगेन्द्राः वन्याश्च ये कीटपतंङ्गभृंङ्गाः।
पीड्यन्ति सर्वे विषमस्थितेन तस्मै नमः श्रीरविनन्दनाय।।
देशाश्च दुर्गाणि वनानि यत्र सेनानिवेशाः पुरपत्तनानि।
पीड्यन्ति सर्वे विषमस्थितेन तस्मै नमः श्रीरविनन्दनाय।।
तिलैर्यवैर्माणगुडान्नदानैर्लोहेन नीलाम्बरदानतो वा।
प्रीणाति मन्त्रैर्निजवासरे च तस्मै नमः श्रीरविनन्दनाय।।
प्रयागकूले यमुनातटे च सरस्वतीपुण्डजले गुहायाम्।
यो योगिनां ध्यानगताऽपि सूक्ष्मस्तस्मै नमः श्रीरविनन्दनाय।।
अन्यप्रदेशात् स्वगृहं प्रविष्टस्तदीयवारे से नरः सुखी स्यातः।
गृहाद्गगतो यो न पुनः प्रयाति तस्मै नमः श्रीरविनन्दनाय।।
स्रष्टा स्वयंभूर्भुवनत्रयस्य त्राता हरीशो हरते पिनाकी।
एकस्रिधा ऋग्युजः साममूर्तिस्तस्मै नमः श्रीरविनन्दनाय।।
शन्यष्टकं यः प्रयतः प्रभाते नित्यं सुपुत्रैः पशुबान्धवैश्च।
पठेत्तु सौख्यं भुवि भोगयुक्तः प्राप्नोति निर्वाणपदं तदन्ते।।
कोणस्थः पिंङ्गलो बभ्रुः कृष्णो रोद्रोऽन्तको यमः।
सोरिः शनैश्चरो मन्दः पिप्लादेन संस्तुतः।।
एतानि दशक नामानि प्रातरुत्थाय यः पठेत्।
शनैश्चरकृता पीड़ा न कदाचिद् भविष्यति।।
।। इति श्रीदशरथकृत शनैश्चरस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।।
शनि देव 2
शनि ग्रह के प्रति अनेक आखयान पुराणों में प्राप्त होते हैं।शनिदेव को सूर्य पुत्र एवं कर्मफल दाता माना जाता है। लेकिन साथ ही पितृ शत्रु भी.शनि ग्रह के सम्बन्ध मे अनेक भ्रान्तियां और इस लिये उसे मारक, अशुभ और दुख कारक माना जाता है। पाश्चात्य ज्योतिषी भी उसे दुख देने वाला मानते हैं। लेकिन शनि उतना अशुभ और मारक नही है, जितना उसे माना जाता है। इसलिये वह शत्रु नही मित्र है।मोक्ष को देने वाला एक मात्र शनि ग्रह ही है। सत्य तो यह ही है कि शनि प्रकृति में संतुलन पैदा करता है, और हर प्राणी के साथ उचित न्याय करता है। जो लोग अनुचित विषमता और अस्वाभाविक समता को आश्रय देते हैं, शनि केवल उन्ही को दण्डिंत (प्रताडित) करते हैं।