नीलाम्बरो नीलवपुः कीरीटी गृधस्थितस्त्रासकरो धनुष्मान्।
चतुर्भुजः सूर्यसुतः प्रसन्न:सदा ममता स्याद् वरदः प्रशान्तः।।१ ।।
ब्रह्मा उवाच
श्रृणुध्वमृषयः सर्वे शनिपीड़ाहरं महत्।
कवचं शनिराजस्य सौरेरिदमुत्तमम्।।२।।
कवचं देवतावासं वज्रपञ्जरसंज्ञकम्।
शनैश्चरप्रीतिकरं सर्वसौभाग्यदायकम्।।३ ।।
ॐ श्रीशनैश्चरः पातु मुखं मे भास्करः सदा।
स्निग्धकण्ठश्च पातु पातु कर्णौ यमानुजः।। ४ ।।
नासां वैवस्वतः पातु मुखं मे भास्करः सदा।
स्निग्धकण्ठश्च मे कण्ठं भुजौ पातु महाभुजः।।५।।
स्कन्धौ पातु शनिश्चैव करौ पातु शुभप्रदः।
वक्षः पातु यमभ्राता कुक्षिं पात्वसितस्तथा।।६ ।।
नाभिं गृहपतिः पातु मन्दः पातु कटिं तथा।
ऊरू ममाऽन्तकः पातु यमो जानायुगं तथा।।७ ।।
पदौ मन्दगतिः पातु सर्वांङ्ग पातु पिप्पलः।
अंङ्गोपांङ्गानि सर्वाणि रक्षेन् मे सूर्नयन्दनः।।८ ।।
इत्येतत् कवचं दिव्यं पठेत् सूर्युसुतस्य यः।
न तस्य जायते पीड़ा प्रीतो भवति सूर्यजः।। ९ ।।
व्यय-जन्म-द्वितीयस्थो मृत्युस्थानगतोऽपि वा।
कलत्रस्थो गतो वाऽपि सुप्रीतस्तु सदा शनिः।।१०।।
अष्टमस्थे सूर्यसुते व्यये जन्मद्वितीयगे।
कवचं पठते नित्यं न पीड़ा जायते क्वचित्।।११।।
इत्येतत् कवचं दिव्यं सौरेर्यन्निर्मितं पुरा।
द्वादशा-ऽष्टम-जन्मस्थ-दोषान्नशायते सदा।
जन्मलग्नस्थितान दोषान् सर्वान्नाशयते प्रभुः।।१२।।
।। इति श्रीब्रह्माण्डपुराणे ब्रह्म-नारदसंवादे शनिवज्रपञ्जर-कवचं सम्पूर्णम् ।।
शनि देव 2
शनि ग्रह के प्रति अनेक आखयान पुराणों में प्राप्त होते हैं।शनिदेव को सूर्य पुत्र एवं कर्मफल दाता माना जाता है। लेकिन साथ ही पितृ शत्रु भी.शनि ग्रह के सम्बन्ध मे अनेक भ्रान्तियां और इस लिये उसे मारक, अशुभ और दुख कारक माना जाता है। पाश्चात्य ज्योतिषी भी उसे दुख देने वाला मानते हैं। लेकिन शनि उतना अशुभ और मारक नही है, जितना उसे माना जाता है। इसलिये वह शत्रु नही मित्र है।मोक्ष को देने वाला एक मात्र शनि ग्रह ही है। सत्य तो यह ही है कि शनि प्रकृति में संतुलन पैदा करता है, और हर प्राणी के साथ उचित न्याय करता है। जो लोग अनुचित विषमता और अस्वाभाविक समता को आश्रय देते हैं, शनि केवल उन्ही को दण्डिंत (प्रताडित) करते हैं।