कर्म के त्याग या संन्यास की दशा एक और भी है। एक तो समदर्शन की अवस्था में जाने से पहले उसकी तैयारी करनी होती है। दूसरे वह अवस्था आने पर उसमें दृढ़ता लाने के लिए प्रयत्न किया जाता है। तैयारी में भी ऐसा होता है कि सबसे पहले उस ओर मन का जाना और लगना जरूरी है। जब मन चाहेगा कि हम उस दशा में आरूढ़ हों, पहुँचें और पक्के हों तभी तो दूसरे यत्न होंगे। इसे ही पुराने लोगों ने विविदिषा, जिज्ञासा वगैरह नामों से पुकारा है और ऐसी प्रवृत्ति वाले को विविदिषु, जिज्ञासु आदि कहा है। गीता में इसे आरुरुक्षा और ऐसे आदमी को आरुरुक्षु नाम दिया गया है। गीता के छठे अध्याय का 'आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं' यह तीसरा श्लोक इस बात को बहुत ही सफाई के साथ बताता है। समदर्शन या साम्यावस्था को गीता में योग या योगावस्था भी कहा है। उसी अध्याय के 18 से 23 तक के श्लोकों में और दूसरे स्थान पर भी यह बात लिखी है। खुद इसी तीसरे श्लोक में भी योग नाम ही आया है। उसी योग में आरूढ़ होने या पहुँचने की इच्छा वाले को 'योगारुरुक्षु' या 'योगमारुरुक्षु' कहा है और पक्कापक्की पहुँच के वहीं स्थिर हो जाने वाले को 'योगारूढ़' कहा है। तीसरे श्लोक में ही ये दोनों नाम आए हैं। लेकिन इसके स्पष्टीकरण के लिए हम उपनिषदों के एकाध वचनों पर भी विचार करेंगे। क्योंकि गीता को प्रत्येक अध्याय के अंत में 'गीतासूपनिषत्सु' शब्दों में उपनिषद भी कहा है।
बृहदारण्यक उपनिषद के चौथे अध्याय के चौथे ब्राह्मण की 22वें और पाँचवें ब्राह्मण के छठे मंत्रों के कुछ अंशों को ही हम यहाँ रखना चाहते हैं। क्योंकि विस्तार करना हमारा लक्ष्य नहीं है। 22वें में लिखा है कि 'तमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषंति यज्ञेन दानेन तपसाsनाशकेन।' इसका आशय यही है कि 'उस आत्मा या ब्रह्म के ज्ञान की इच्छा (विविदिषा या जिज्ञासा) या यों कहिए कि लगन पैदा करने के लिए विवेकी लोग, वेदशास्त्रों के आधार पर, यही निश्चय करते हैं कि यज्ञ, दान और तप करना चाहिए - ऐसा तप जो शरीर का नाशक न हो या अनशन के रूप में न हो।' यहाँ यज्ञ, दान और तप से मतलब है सभी कर्मों से। गीता के अनुसार ये तीनों बहुत ही व्यापक हैं और इनमें सभी क्रियाओं का समावेश हो जाता है, जैसा कि सत्रहवें अध्याय के 11 से 22 तक के श्लोकों और चौथे अध्याय के 24 से 29 तक के श्लोकों से स्पष्ट है। इससे यह तो सिद्ध है कि जिज्ञासु या योगारुरुक्षु बनने के लिए - ज्ञान या योग के प्रति उत्कट अभिलाषा या लगन पैदा करने के लिए - कर्म जरूरी है, कारण हैं, साधन हैं, उपाय हैं। यही बात 'आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं' आदि आधे श्लोक में कही गई है। इस प्रकार योग या समदर्शन की तैयारी के लिए कर्मों की जरूरत सिद्ध हो जाती है। कर्मों के करते-करते ही यह लगन पैदा हो जाती है। कर्म जितनी ही मुस्तैदी एवं तत्परता के साथ किए जाएँगे उतनी ही जल्दी यह लगन पैदा हो के मनुष्य उस दिशा में पाँव देगा - उसके अत्यंत निकट आ जाएगा।
इसके बाद उसी 22वें मंत्र में पूर्वोक्त वचन के बाद ही उसी से मिला हुआ यह वचन मिलता है, 'एतमेव विदित्वा मुनिर्भवति एतमेव प्रव्राजिनो लोकमिच्छन्त: प्रव्रजन्ति।' इसका आशय यह है कि 'आत्मज्ञान के बाद ही मनुष्य को मुनि या मननशील हो जाना पड़ता है और उसी ज्ञान की पुष्टि या आत्मा की प्राप्ति के लिए लोग संन्यासी बनते हैं।' पाँचवें ब्राह्मण के छठे मंत्र में भी लिखा है कि 'आत्मा वा अरे द्रष्टव्य: श्रोतव्यो मंतव्यो निदिध्यासितव्यो मैत्रेयि।' इसका अर्थ यह है कि 'अरे मैत्रेयी, आत्मा के ज्ञान या दर्शन का होना सर्वथा सर्वदा वांछनीय है। उसके लिए श्रवण, मनन और निदिध्यासन करना होगा।' श्रवण का तात्पर्य है खूब ध्यान से पढ़ना और सुनना कि वह कैसा है। उसके बाद उस पर खूब मनन और विचार करना आवश्यक है। दोनों बातें कर लेने के बाद एकांत में समाधि लगा के उसी का निरंतर चिंतन करना होगा। तभी आत्मज्ञान हो सकता है। इसी समाधि या निदिध्यासन का विस्तृत वर्णन गीता के छठे अध्याय के 10 से 32, आठवें के 8 से 13, बारहवें के 6 से 19 और अठारहवें के 50 से 55 तक के और दूसरे श्लोकों में भी है। यही बात 'आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं' श्लोक के उत्तरार्द्ध में भी कही गई है कि उसे मुनि और योगारूढ़ बनने-बनाने के लिए शम यानी कर्मों के त्याग की जरूरत है, त्याग ही उसका कारण है। उपनिषद के वचन में जो 'मुनि' शब्द है वही गीता के इस श्लोक में भी पाया जाता है। उपनिषद के वचनों में साफ ही संन्यास की बात कही गई है। यह भी बात है कि मनन एवं निदिध्यासन या समाधि के लिए तो जानें कितने समय तक कर्मों को कतई छोड़ देना आवश्यक हो जाता है। गीता के उक्त श्लोकों के पढ़नेवाले और समाधि की बातें जानने वाले ही बता सकते हैं कि उस समय कर्म की गुंजाइश कहाँ रह जाती है? सो भी युग लग जाते हैं फिर भी काम पूरा नहीं होता। इसीलिए कर्मों का त्याग या संन्यास खामख्वाह अनिवार्य हो जाता है।
जो लोग चौथे अध्याय के उक्त श्लोक के 'योगारूढ़स्य तस्यैव शम: कारणमुच्यते' में शम शब्द देख के एवं उसका अर्थ उपशम या मन की शांति लगा के संतोष कर लेते और कर्मों का त्याग जरूरी नहीं समझते उनकी समझ पर हमें तरस आता है। योगारूढ़ शब्द के भीतर तो मन की शांति या उसका निरोध आई जाता है। 'योगोsनिर्विण्णचेतसा' (6। 23) में भी साफ ही लिखा है कि योग की सिद्धि मन की शांति के बिना हो नहीं सकती है। और जब सभी कर्म करते रहें तो फिर मन की चंचलता मिटेगी कैसे? वह तो बराबर चक्कर लगाता ही रहेगा। हम यहाँ इतना ही कहना काफी समझते हैं कि योग के बारे में गीता के जिन वचनों का नाम हमने लिया है उन्हें पढ़ने और समझने के बाद यदि फिर भी किसी को यह कहने की हिम्मत हो कि समाधि के साथ-साथ विधान प्राप्त कर्म भी हो सकते हैं, तो हम अपनी भूल स्वीकार कर लेंगे। जो लोग यह कहते हैं कि शम का अर्थ कर्मत्याग या संन्यास नहीं होता उन्हें चौदहवें अध्याय के 'लोभ: प्रवृत्तिरांभ: कर्मणामशम: स्पृहा' (12) को पढ़ के संतोष करना चाहिए। वहाँ 'आरंभ:' और 'अशम:' के बीच में 'कर्मणां' शब्द आया है और यह बताता है कि रजोगुण की वृद्धि हो जाने पर आदमी को लोभ होता है, कर्मों के करने की इच्छा होती है, वह कर्म शुरू भी कर देता है, फिर उसका ताँता बराबर जारी रखता है और उसे बंद नहीं करता। 'शम' के साथ 'अ' लगने पर वह बंद करने या त्याग की विरोधी बात कहता है। 'शम' धातु का संस्कृत में अर्थ भी है सभी क्रिया की निवृत्ति। मन की शांति का अर्थ भी यही है कि उसकी सारी हलचलें मिट गईं। मगर शांति शब्द तो केवल मन के ही लिए आता नहीं। झगड़े की शांति तूफान की शांति आदि भी तो बोलते हैं। अत: उसका अर्थ है क्रिया की निवृत्ति। अग्नि शांत हो गई, लोग शांत हो गए या ठंडे पड़ गए, गुस्सा शांत हो गया आदि बोलचाल में तो हलचल और क्रिया की ही निवृत्ति से मतलब होता है।